एब्स्ट्रैक्ट:इमेज कॉपीरइटAFPImage caption भारत में करीब 3 करोड़ किसान गन्ने की खेती करते हैं हाल ही में जब प्रधान
इमेज कॉपीरइटAFPImage caption भारत में करीब 3 करोड़ किसान गन्ने की खेती करते हैं
हाल ही में जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उत्तर प्रदेश में एक चुनावी सभा कर रहे थे तो उन्हें गन्ना किसानों से एक वादा करने के लिए मजबूर होना पड़ा.
ये किसान उन राज्यों से ताल्लुक रखते हैं, जहां भारतीय जनता पार्टी की सरकारें हैं. गन्ना किसान चीनी मिलों द्वारा बकाया भुगतान नहीं किए जाने से नाराज़ थे.
उन्होंने विरोध प्रदर्शन किया और रेल परिचालन ठप कर दिया था.
नरेंद्र मोदी ने सभा में कहा, “मुझे पता है कि गन्ने का बकाया है. मै यह सुनिश्चित करूंगा कि आपकी पाई-पाई का भुगतान किया जाए.”
भारत के गन्ना किसान परेशानियों में हैं और 5 करोड़ किसानों के करोड़ो रुपये बकाया है. इनमें से अधिकतर को करीब एक साल से भुगतान नहीं किया गया है.
नीति आयोग का कहना है कि बकाया राशि बहुत ज़्यादा हो गई है. मिलों में 1.2 करोड़ टन से ज़्यादा चीनी की बोरियां रखी हुई हैं, जिनकी बिक्री नहीं हो सकी है.
इनका निर्यात भी नहीं किया जा सकता है क्योंकि विदेशों में चीनी भारत के मुकाबले कहीं सस्ते दर पर मिलती है.
भारत में चीनी का व्यापार काफी जोख़िम भरा काम है. अक्तूबर 2018 से अप्रैल 2019 तक देश की करीब 525 चीनी मिलों ने 3 करोड़ टन से अधिक चीनी का उत्पादन किया.
इसके बाद भारत दुनिया का सबसे बड़ा चीनी उत्पादक देश बन गया. उसने ब्राज़ील को इस क्षेत्र में पीछे छोड़ दिया. इनमें से ज़्यादातर चीनी मिलें सहकारी संस्थानों द्वारा संचालित होती हैं.
करीब 3 करोड़ किसान एक ख़ास भौगोलिक क्षेत्र में रहते हैं और गन्ने की खेती से जुड़े हैं. लाखों मज़दूर खेतों और मिलों में काम करते हैं और गन्ने की ढुलाई में लगे हैं.
यही कारण है कि गन्ना किसानों को राजनीतिक पार्टियां एक 'वोट बैंक' की तरह देखती हैं. उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र मिल कर देश की 60 फ़ीसदी चीनी का उत्पादन करते हैं. इन दोनों राज्यों में लोकसभा की 128 सीटे हैं.
एक अनुमान के मुताबिक चीनी उत्पादन से जुड़े उद्योग लोकसभा की 543 सीटों में से 150 को प्रभावित करते हैं. महाराष्ट्र के चीनी आयुक्त शेखर गायकवाड़ का मानना है कि संभवतः “चीनी दुनिया का सबसे अधिक राजनीतिक फसल है.”
इमेज कॉपीरइटAFPImage caption दुनिया में सबसे अधिक चीनी भारत में ही बनती है
भारत में बड़ी मात्रा में चीनी का इस्तेमाल होता है. एक बड़ा हिस्सा मिठाई और पेय पदार्थों के बनाने में जाता है.
सरकार गन्ने और चीनी की कीमतें निर्धारित करती है. वो ही उत्पादन और निर्यात की मात्रा तय करती है और सब्सिडी देती है.
सरकारी बैंक किसानों और चीनी मिलों को ऋण मुहैया कराते हैं. महाराष्ट्र के कोल्हापुर ज़िले के किसान संजय अन्ना कोले कहते हैं, “गन्ने की खेती से मैं हर महीने लगभग सात हज़ार रुपए कमाता हूं. यह बहुत बड़ी राशि तो नहीं है पर यह एक सुनिश्चित आय है.”
संजय के पास 10 एकड़ जमीन है, जिस पर वो गन्ने की खेती करते हैं.
इमेज कॉपीरइटMansi ThapliyalImage caption किसान संजय अन्ना कोले
जिस कीमत पर मिलें गन्ना खरीदती हैं, उससे कहीं अधिक कीमत पर वे चीनी बेचती हैं. थाईलैंड, ब्राज़ील, ऑस्ट्रेलिया जैसे बड़े उत्पादक देशों में भारत एक ऐसा देश है जो किसानों को सबसे अधिक गन्ना मूल्य का भुगतान करता है.
चीनी के उत्पादन में यह ब्राज़ील से कहीं अधिक खर्च करता है.
हालांकि राजनेताओं की भागीदारी से इस क्षेत्र को बहुत फ़ायदा नहीं पहुंचाया जा सका है. 1950 के दशक में मिलों की स्थापना के बाद से राजनेता सहकारी मिलों के चुनाव जीत कर उन पर नियंत्रण पाने में सफल रहे हैं.
महाराष्ट्र के लगभग आधा दर्जन मंत्री के पास चीनी मिल है. गन्ना उत्पादन के मामले में महाराष्ट्र दूसरा बड़ा राज्य है.
वर्जीनिया विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के एसोसिएट प्रोफेसर संदीप सुखतंकर ने राजनेताओं और चीनी मिलों के बीच संबंधों पर एक अध्ययन किया, जिसमें उन्होंने पाया कि 183 में से 101 मिलों के अध्यक्षों ने 1993 से 2005 के बीच कोई न कोई चुनाव लड़े हैं.
उन्होंने यह भी पाया कि चुनावी सालों में इन मिलों ने गन्ना किसानों को कम कीमतों का भुगतान किया गया था, जिसका उत्पादकता में हुए नुकसान के कोई लेना देना नहीं था.
इमेज कॉपीरइटMansi ThapliyalImage caption महाराष्ट्र की एक चीनी फैक्ट्री में चीनी का गोदाम. भारत में कई चीनी मिलों के पास अब चीनी का स्टॉक बढ़ता जा रहा है.
इन मिलों पर आरोप लगते हैं कि ये जान बूझकर किसानों का बकाया रखते हैं और उन्हें चुनावों से ठीक पहले भुगतान किया जाता है ताकि इसका लाभ चुनावी जीत हासिल करने में मिल सके.
राजनीतिक पार्टियों पर मिलों से चंदा भी लेने के आरोप लगते रहे हैं.
डॉ. सुखतंकर कहते हैं कि चीनी मिलों का उपयोग राजनीतिक लाभ के लिए खूब होता है.
कोल्हापुर के गन्ना किसान सुरेश महादेव गटागे कहते हैं, “गन्ना उद्योग डूबता हुआ उद्योग है. जब तक सरकार कृषि नीतियों में बदलाव नहीं करती तब तक इसका कोई भविष्य नहीं है.”
इमेज कॉपीरइटMansi ThapliyalImage caption किसान सुरेश महादेव गटागे
किसानों की स्थिति चिंताजनक है. जनवरी में कई हज़ार नाराज़ गन्ना किसान पुणे शहर में शेखर गायकवाड़ के दफ्तर के बाहर धरने पर बैठ गए और बकाया देने की मांग की.
सांसद और गन्ना किसानों के प्रमुख नेता राजू शेट्टी कहते हैं कि मूल्य नियंत्रण में ढील दी जानी चाहिए और शीतल पेय और दवाई बनाने वाली कॉर्पोरेट कंपनियों को चीनी के लिए अधिक भुगतान करना चाहिए.
उन्होंने कहा, “चीनी सस्ती दरों पर सिर्फ़ उन्हें दी जानी चाहिए, जो आर्थिक रूप से कमज़ोर हैं. सक्षम लोगों को इसके लिए अधिक भुगतान करना चाहिए. ऐसा नहीं हुआ तो उद्योग समाप्त हो जाएगा और किसान मर जाएंगे. यहां तक कि राजनेता भी इसे बचा नहीं पाएंगे.”
(बीबीसी हिन्दी के एंड्रॉएड ऐप के लिए आप यहां क्लिककर सकते हैं. आप हमें फ़ेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्रामऔर यूट्यूबपर फ़ॉलो भी कर सकते हैं.)
अस्वीकरण:
इस लेख में विचार केवल लेखक के व्यक्तिगत विचारों का प्रतिनिधित्व करते हैं और इस मंच के लिए निवेश सलाह का गठन नहीं करते हैं। यह प्लेटफ़ॉर्म लेख जानकारी की सटीकता, पूर्णता और समयबद्धता की गारंटी नहीं देता है, न ही यह लेख जानकारी के उपयोग या निर्भरता के कारण होने वाले किसी भी नुकसान के लिए उत्तरदायी है।
TMGM
BBI Trading
FXOpulence
IG
FXTM
FOREX.com
TMGM
BBI Trading
FXOpulence
IG
FXTM
FOREX.com
TMGM
BBI Trading
FXOpulence
IG
FXTM
FOREX.com
TMGM
BBI Trading
FXOpulence
IG
FXTM
FOREX.com