एब्स्ट्रैक्ट:इमेज कॉपीरइटGetty Imagesसुप्रीम कोर्ट ने अपने अंतरिम आदेश में कहा है कि राजनीतिक दलों को चुनावी बॉण्
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सुप्रीम कोर्ट ने अपने अंतरिम आदेश में कहा है कि राजनीतिक दलों को चुनावी बॉण्ड के ज़रिए मिलने वाले चंदे का ब्यौरा उन्हें चुनाव आयोग को सौंपना होगा.
अब चुनावी बॉण्ड पर रोक लगाने से जुड़ी अन्य याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई चुनावों के बाद की जायेगी.
चुनावी बॉण्डों के ख़िलाफ़ याचिका में उठाए गये गम्भीर मुद्दों पर चुनाव आयोग ने भी लिखित सहमति जताई है.
भारत की संवैधानिक व्यवस्था जनता के लिए बनाई गई है तो फिर जनता से चुनी गई सरकार, जनता के सवालों से क्यों भाग रही है?
चुनावी बॉण्डों को भी मनी बिल के तौर पर संसद में पारित किया गया, जिसके ख़िलाफ़ मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने सुप्रीम कोर्ट में शुरुआती याचिका दाखिल की.
केन्द्र सरकार द्वारा 2017 के बजट में चुनावी बॉण्डों के लिए पांच बड़े कानूनों में वित्त विधेयक के माध्यम से बदलाव किये गये
1. भारतीय रिजर्व बैंक अधिनियम 1934 की धारा-31
2. लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 की धारा-29C
3. आयकर अधिनियम 1961 की धारा-13A
4. कंपनी अधिनियम 2013 की धारा 182
5. विदेशी अंशदान (विनियमन) अधिनियम 2010 की धारा 2(1)
राजनीतिक दलों, विशेषतौर पर सत्तारुढ़ पार्टी को लाभ पहुंचाने वाली इस अपारदर्शी व्यवस्था को बनाने के लिए मनी बिल का शॉर्टकट क्यों अपनाया गया?
मनी बिल के माध्यम से लाए गए चुनावी बॉण्ड स्कीम पर चुनाव आयोग की शक्तियों को सरकार द्वारा कैसे सीमित किया जा सकता है?
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अटॉर्नी जनरल ने दीप्राइवेसी की ग़लत मिसाल
सुप्रीम कोर्ट के नौ जजों के फैसले के बाद संविधान के अनुच्छेद-21 के तहत नागरिकों को प्राइवेसी का अधिकार मिला है, लेकिन इस बारे में सरकार ने अभी तक कोई कानून ही नहीं बनाया है.
प्राइवेसी का अधिकार जनता के लिए है और इसे कम्पनियों और पार्टियों पर लागू नहीं किया जा सकता. इसके बावजूद अटॉर्नी जनरल ने चुनावी बॉण्डों का बचाव करते हुए सुप्रीम कोर्ट में कहा कि पार्टियों को भी राइट टू प्राइवेसी का हक़ है.
आधार पर बहस के दौरान केन्द्र सरकार ने प्राइवेसी के अधिकार को सीमित बताया था तो फिर अब इसका पार्टियों के लिए बेजा विस्तार क्यों किया जा रहा है?
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सुप्रीम कोर्ट में दायर हलफनामे में चुनाव आयोग ने स्पष्ट तौर पर यह बताया है कि पार्टियों को पारदर्शी व्यवस्था बनाने की कानूनी बाध्यता है, तो फिर प्राइवेसी के नाम पर टाल-मटोल क्यों?
चुनावी चंदे के लिए गोपनीयता क्यों
सरकारी स्टेट बैंक में बिकने वाले चुनावी बॉण्डो की जानकारी किसी और एजेंसी के साथ साझा नहीं हो सकती. चुनावी बॉण्डों को खरीदने वाले डोनर्स और पाने वाली पार्टियों को आयकर में छूट मिलती है.
इसके बावजूद आयकर विभाग को भी पूरी जानकारी क्यों नहीं दी जा रही है? किस कम्पनी ने किस पार्टी को कौन सा बॉण्ड दिया, इस बारे में चुनाव आयोग को भी पूरी जानकारी क्यों नही है?
चुनावी बॉण्डों के लिए सरकार ने उन कानूनों में भी बदलाव क्यों नहीं किया, जिनके अनुसार पार्टियों को चुनाव आयोग को सभी विवरण पारदर्शी तरीके से देने हैं?
सुप्रीम कोर्ट ने भी चुनावी बॉण्ड की जानकारी सीलबंद लिफाफे में देने का आदेश देकर चुनाव आयोग की सर्वोच्चता को क्यों सीमित किया है?
इमेज कॉपीरइटPhotoshotविधि आयोग की रिपोर्ट
संविधान के अनुच्छेद-324 के तहत चुनाव आयोग के पास सर्वोच्च शक्तियाँ हैं, जिन पर सुप्रीम कोर्ट ने भी अनेक बार मुहर लगाई है. राजनीतिक चंदे में पारदर्शिता के लिए केन्द्र सरकार को अनेक प्रस्ताव भेजने के साथ चुनाव आयोग ने पारदर्शिता के लिए साल 2014 में विस्तृत गाइडलाइन्स भी बनाई हैं.
इस बारे में विधि आयोग ने भी मार्च 2015 की 255वीं रिपोर्ट में विस्तृत अनुशंसा की है. कालेधन को खत्म करने का वादा करने वाली मोदी सरकार ने चुनाव आयोग और विधि आयोग की सिफारिश मानने की बजाय, चुनावी बॉण्डों की ये अपारदर्शी व्यवस्था क्यों शुरू की?
नकदी चंदे पर प्रतिबन्ध क्यों नहीं?
जनवरी 2018 में इस व्यवस्था के लागू होने के बाद केन्द्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली ने ब्लॉग लिखकर चुनावी बॉण्ड की गोपनीय व्यवस्था का बचाव किया था. जेटली के अनुसार चुनावों में काले धन के इस्तेमाल को रोकने के लिए चुनावी बॉण्ड एक सही रास्ता है.
नोटबन्दी के बाद गरीब महिलाओं को भी अपनी गाढ़ी बचत का हिसाब सरकार को देना पड़ा था, तो फिर चुनावी बॉण्ड के नाम पर हजारों करोड़ गटकने वाली पार्टियाँ, पारदर्शिता से क्यों भाग रही हैं?
नये कानून के बाद एक हज़ार रुपये से लेकर 1 करोड़ तक की रकम के चुनावी बॉण्ड बैंकों में उपलब्ध हैं. जेटली के तर्क को यदि सही भी माना जाए तो फिर दो हज़ार रुपये से ऊपर के सभी नकदी चंदे पर प्रतिबन्ध क्यों नहीं लगाया गया?
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बैंकों का बढ़ता एनपीए और चुनावीबॉण्ड
विजय माल्या, नीरव मोदी, मेहुल चौकसी, आम्रपाली जैसे अनेक उद्योगपतियों ने फ़र्जी कम्पनियों के माध्यम से बैंकों का पैसा इधर से उधर करने के साथ नेताओं को भी खूब चंदा दिया.
चुनावी बॉन्ड के लिए कम्पनी कानून में जो बदलाव किए गए हैं, उसके अनुसार अब घाटे वाली कम्पनियाँ भी चुनावी बॉण्ड के माध्यम से पार्टियों को डोनेशन दे सकती हैं.
आलोचकों के अनुसार कानून में सुराख़ बनाकर सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनियों से भी चुनावी बॉण्ड के रूप में डोनेशन लिया जा सकता है.
बैंकों के पैसे को पार्टियों को लेने का क्या हक़ है? चुनावी बॉण्ड के कानून में ऐसे झोल रखे गये हैं, जिसकी वजह से विदेशी कंपनियां भी सहायक कंपनियों के माध्यम से पार्टियों को चुनावी फंड दे सकती हैं.
साल 2018 में मुंबई में 878 करोड़ के बॉन्ड कंपनियों द्वारा खरीदे गये, जबकि एक भी बॉन्ड मुम्बई में कैश नहीं कराया गया.
चुनावों के पहले बड़े पैमाने पर दिये जा रहे चंदों के माध्यम से कंपनियों द्वारा किए जा रहे निवेश से हितों के टकराव का भी गंभीर मामला बनता है.
चुनावी बॉण्ड के माध्यम से हजारों करोड़ के डोनेशन देने वाली कम्पनियों और पार्टियों के सीएजी ऑडिट की व्यवस्था भी क्यों नहीं बननी चाहिए?
इमेज कॉपीरइटRTI.GOV.INआरटीआई से इंकार क्यों
सरकारी बंगलों में पार्टियों के ऑफिस चलते हैं और उनकी आमदनी पर कोई इनकम टैक्स भी नहीं लगता? सरकार बनने के बाद तो सत्तारुढ़ दल के नेताओं की बल्ले-बल्ले हो जाती है.
दिल्ली में सरकार द्वारा आवंटित जमीन पर चल रहे स्कूलों के ऊपर स्पेशल ऑडिट समेत अनेक पाबन्दियाँ हैं, तो फिर नियमों के अनुसार सभी पार्टियों की ऑडिट की गई बैंलेस सीट और वित्तीय विवरण चुनाव आयोग की वेबसाइट पर होना चाहिए.
इन्हें लागू करने की बजाए राजनीतिक दल आरटीआई से बचने का भरसक प्रयास कर रहे हैं. चुनाव जीतने वाले सभी नेता खर्च की सीमा के साथ आचार-संहिता का भी उल्लंघन करते हैं.
अब पार्टियाँ भी संविधान और चुनाव आयोग के दायरे से बाहर होने के लिए चुनावी बॉण्ड जैसे मनमाफिक नियम बना रही हैं. कानून में सुराख़ करने वाले नेताओं से आम चुनावों में जनता को चुनावी बॉण्ड पर सवाल ज़रूर पूछना चाहिए.
तभी नेताओं से कानून के शासन के पालन की अपेक्षा हो सकेगी, जो सरकार बनाने पर उनका सबसे बड़ा संवैधानिक उत्तरदायित्व है.
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