एब्स्ट्रैक्ट:इमेज कॉपीरइटGetty Imagesशुरुआत में ऐसा माना जा रहा था कि उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी, बहुजन समा
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शुरुआत में ऐसा माना जा रहा था कि उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी एवं कांग्रेस मिलकर महागठबंधन बनाएंगे लेकिन ऐसा हो न सका.
चर्चा यह रही कि मायावती कांग्रेस के साथ गठबंधन के पक्ष में नहीं थीं. उन्होंने समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के गठबंधन की घोषणा के आस-पास भी बोला था कि कांग्रेस अपने आधारमत को ट्रांसफर नहीं कर पाती. इसलिए उसके साथ गठबंधन का कोई मतलब नहीं है.
लेकिन, तब उन्होंने कांग्रेस के साथ गठबंधन न करने के कारण को बहुत नर्मी से बयान किया था. इसके बाद राजनीतिक घटनाक्रम तेज़ी से बदला.
प्रियंका गांधी ने अस्पताल में जाकर भीम आर्मी के संस्थापक युवा नेता चंद्रशेखर से मुलाकात की. उसके बाद चंद्रशेखर की राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं भी मुखरित होने लगीं. वे बनारस से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के विरुद्ध चुनाव लड़ने की घोषणा करने लगे.
चन्द्रशेखर ने 15 मार्च को कांशीराम की जयन्ती के मौके पर नई दिल्ली में जंतर-मंतर पर जो रैली की उसमें कांशीराम की बहन स्वर्ण कौर भी थी, जो मायावती की धुर विरोधी रही हैं. वे कांशीराम के अन्तिम दिनों में उनका इलाज मायावती के घर के बजाए अपने और भाई की देखरेख में कराना चाहती थीं.
उस रैली में उन्होंने मायावती की आलोचना भी की. इससे जाहिर है कि मायावती का गुस्सा भीम आर्मी के संयोजक चंद्रशेखर के प्रति बढ़ा ही होगा.
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प्रियंका-चंद्रशेखर मुलाक़ात से कांग्रेस को क्या हासिल?
इमेज कॉपीरइटGetty Imagesकांग्रेस से डर क्यों
प्रियंका गांधी की चन्द्रशेखर से हुई मुलाकात के बाद कांग्रेस के प्रति उनकी नाराज़गी बढ़ी ही है, जिसे उन्होंने ज़ाहिर भी किया.
सवाल उठता है कि मायावती को कांग्रेस जैसे संगठन से इतना डर क्यों है जबकि उत्तर प्रदेश कांग्रेस का आधार बहुत कमज़ोर है?
इसका मूल कारण है, उनके अंदर मौजूद आशंका कि कहीं उनका जाटव वोट बैंक कांग्रेस की तरफ खिसक न जाए. ये छुपा हुआ नहीं है कि जाटव पारंपरिक रुप से कांग्रेस का वोट बैंक रहा है, जिन्हें 90 के दशक में कांशीराम और मायावती वहां से हटाकर बीएसपी की तरफ ले आए. तबसे अब तक राजनीतिक हालात काफ़ी बदल गए हैं.
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मायावती की अधूरी राजनीतिक हसरतों को झटका
इमेज कॉपीरइटRIYAZ HASHMIImage caption प्रियंका गांधी की भीम आर्मी के संस्थापक चंद्रशेखर से मुलाकात
कांशीराम अब नहीं रहे और मायावती को लेकर दलित समूहों में भी कहीं-कहीं मोहभंग दिखना लगा है. जैसा कि होता है कि गठबंधन के दौर में शामिल पार्टियों के कार्यकर्ताओं और काडर्स के बीच संवाद होता ही है. ऐसे में मायावती का यह डर लाजिमी है कि ऐसे संवाद से उनके वोट बैंक का एक तबका कांग्रेस की ओर जा सकता है.
यह तबका अगर बीएसपी से अलग होता है तो मायावती की राजनीति को नुकसान होगा. जाटवों में मायावती को वोट देते रहने के बावजूद कांग्रेस के लेकर नर्म भाव दिखाई पड़ता है. इन्दिरा गांधी की गहन स्मृति मध्य आयु एवं वृद्ध जाटव सामाजिक समूहों और अन्य वंचित समूहों में भी दिखाई पड़ती है.
इमेज कॉपीरइटGetty Imagesपीएम पद की चाह
दूसरा, प्रियंका गांधी के उत्तर प्रदेश की राजनीति में उतरने के बाद कांग्रेस में आ रही मजबूती के कारण भी मायावती कांग्रेस को एक खतरे के रूप में देख रही हैं. प्रियंका गांधी की आक्रामक शैली और आत्मीय प्रचार भाषा कहीं दलितों को अपने असर में न ले ले, यह डर मायावती को जरूर सता रहा होगा.
मायावती की आकांक्षा देश का नेतृत्व करने की है. गैर भाजपाई पीएम पद की दौड़ अगर होती है तो मायावती का मुकाबला कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी से हो सकता है. ऐसे में मायावती के मन में कांग्रेस से दूरी होना स्वाभाविक है. वहीं, उत्तर प्रदेश की राजनीति में अपना वोट बैंक बचाए रखने की चिंता भी उन्हें कांग्रेस से दूर करती रही है.
लेकिन, अनेक विपक्षी दल के नेता जेसे शरद पवार, चंद्रबाबू नायडू कांग्रेस और बसपा, सपा, गठबन्धन में 'मित्रतापूर्ण चुनावी संघर्ष' का भाव बनाए रखने की कोशिश कर रहे हैं ताकि गैर-भाजपाई गठबंधन बनाने में सुविधा हो.
शायद इसीलिए कांग्रेस ने सपा-बसपा गठबन्धन के विरुद्ध सात सीटों पर उम्मीदवार नहीं लड़ाने का फैसला किया है. यह मित्रतापूर्ण संघर्ष का एक संकेत है.
देखना यह है कि कांग्रेस और मायावती इस ज़रुरत को कितना दूर तक समझ पाते हैं और चुनाव के बाद गठबंधन की संभावना बनाए रख पाते हैं.
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